विनोद खन्ना: एक चमकता सितारा, एक दृढ़ राजनेता
प्रारंभिक जीवन और पृष्ठभूमि
विनोद खन्ना का जन्म 6 अक्टूबर 1946 को पेशावर (जो अब पाकिस्तान में है) में एक अमीर व्यावसायिक परिवार में हुआ था। भारत के विभाजन के बाद उनका परिवार मुंबई (तब बॉम्बे) आ गया। उनके पिता किशनचंद खन्ना एक उद्योगपति थे। उनका बचपन मुंबई में बीता, और उन्होंने नासिक के बोर्डिंग स्कूल से प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त की। बाद में उन्होंने सिद्धेहम कॉलेज, मुंबई से वाणिज्य (कॉमर्स) में स्नातक की पढ़ाई की।
हालांकि वे पढ़ाई में अच्छे थे, लेकिन बचपन से ही उन्हें फिल्मों में दिलचस्पी थी। वे अक्सर सिनेमा देखते और अपने दोस्तों के साथ अभिनेताओं की नकल किया करते। यही रुचि उन्हें अभिनय की ओर खींच लाई।
फिल्मी करियर की शुरुआत
विनोद खन्ना ने अपने करियर की शुरुआत 1968 में फ़िल्म मन का मीत से की, जिसमें उन्होंने खलनायक की भूमिका निभाई थी। यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर ज्यादा नहीं चली, लेकिन विनोद की अदाकारी ने लोगों का ध्यान खींचा। उन्होंने शुरुआत में कई फिल्मों में विलेन की भूमिकाएं निभाईं – पूरब और पश्चिम, रखवाला, द वांटेड, रोटी, राजपूत, हत्यारा जैसी फिल्मों में उनके खलनायक रूप को सराहा गया।
परंतु उनका करिश्माई व्यक्तित्व, गहरी आवाज़ और आकर्षक व्यक्तित्व जल्द ही उन्हें नायक की भूमिकाओं की ओर ले गया। 1971 में आई फिल्म हम तुम और वो, और फिर मेरे अपने ने उन्हें एक संवेदनशील अभिनेता के रूप में स्थापित किया।
चोटी का सितारा
1970 और 1980 का दशक विनोद खन्ना के करियर का स्वर्णकाल था। उन्होंने अमिताभ बच्चन, धर्मेंद्र, ऋषि कपूर जैसे बड़े सितारों के साथ बराबरी में काम किया। अमर अकबर एंथनी (1977), हेरा फेरी (1976), कुर्बानी (1980), द बर्निंग ट्रेन (1980), रखवाला, दयावान, चांदनी जैसी सुपरहिट फिल्मों ने उन्हें बॉलीवुड के सबसे बड़े स्टार्स में शुमार किया।
विनोद खन्ना को “स्मार्ट” और “शालीन” अभिनेता के रूप में जाना गया। उनके अभिनय में न तो अति-नाटकीयता थी और न ही नकलीपन। वे अपने किरदारों को स्वाभाविक अंदाज में निभाते थे, और यह बात दर्शकों को बहुत पसंद आई।
ओशो के साथ आध्यात्मिक यात्रा
1982 में, जब विनोद खन्ना अपने करियर की ऊंचाई पर थे, उन्होंने फिल्म इंडस्ट्री से अचानक दूरी बना ली और अमेरिका में आध्यात्मिक गुरु ओशो रजनीश (भगवान श्री रजनीश) के आश्रम में शामिल हो गए। वहां वे करीब पाँच साल तक रहे और आश्रम में माली (गै़र्डनर) का काम भी किया। इस निर्णय ने सबको चौंका दिया, लेकिन विनोद खन्ना ने कभी इसे लेकर पछतावा नहीं जताया।
1987 में वे भारत लौटे और दोबारा फिल्मों में काम करना शुरू किया। उनकी वापसी फिल्म इंसाफ से हुई, जो सफल रही। इसके बाद उन्होंने दयावान, फरिश्ते, चांदनी, जुर्म जैसी फिल्मों में अहम भूमिकाएं निभाईं।
राजनीतिक सफर
1997 में विनोद खन्ना ने भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) जॉइन की और सक्रिय राजनीति में कदम रखा। 1998 में वे पंजाब के गुरदासपुर से लोकसभा सांसद चुने गए। उन्होंने चार बार इस सीट से चुनाव जीता।

वाजपेयी सरकार में वे विदेश मामलों और पर्यटन मंत्री भी रहे। उन्होंने राजनीति में भी विनम्रता और संयम बनाए रखा, और अपने क्षेत्र के लोगों के लिए कई सामाजिक कार्य किए। उन्हें एक ईमानदार और गंभीर नेता माना जाता था।
व्यक्तिगत जीवन
विनोद खन्ना का विवाह पहली बार गीतांजलि से हुआ, जिनसे उन्हें दो बेटे हुए – राहुल खन्ना और अक्षय खन्ना, दोनों ही बॉलीवुड में अभिनेता बने। बाद में गीतांजलि से उनका तलाक हो गया। उन्होंने दूसरी शादी कविता खन्ना से की, जिनसे उन्हें दो और संतानें हुईं – एक बेटा साक्षी खन्ना और एक बेटी श्रद्धा खन्ना।
उनकी छवि एक आकर्षक, संतुलित और अनुशासित व्यक्ति की रही। वे फिल्मों और राजनीति दोनों में बहुत सम्मानित व्यक्ति थे।
अंतिम समय और निधन
विनोद खन्ना को 2017 में ब्लैडर कैंसर (मूत्राशय कैंसर) का पता चला। वे इलाज के लिए अस्पताल में भर्ती हुए और 27 अप्रैल 2017 को मुंबई के एक अस्पताल में उनका निधन हो गया। उनकी मृत्यु से फिल्म इंडस्ट्री और राजनीतिक जगत दोनों में शोक की लहर दौड़ गई। उन्हें श्रद्धांजलि देने के लिए बड़ी संख्या में लोग जुटे, जिनमें राजनेता, फिल्मी सितारे और उनके प्रशंसक शामिल थे।

विरासत
विनोद खन्ना न सिर्फ एक महान अभिनेता थे, बल्कि एक बेहतरीन इंसान और सच्चे देशभक्त भी थे। उन्होंने अभिनय की दुनिया में अपना अलग मुकाम बनाया और फिर राजनीति में भी सफलता पाई। 2018 में उन्हें मरणोपरांत दादा साहेब फाल्के पुरस्कार से नवाज़ा गया – जो भारतीय सिनेमा का सबसे बड़ा सम्मान है।
उनकी ज़िंदगी में संयम, आत्मअनुशासन और आध्यात्मिकता का अद्भुत मेल था। विनोद खन्ना आज भी भारतीय सिनेमा के सुनहरे युग के चमकते सितारे के रूप में याद किए जाते हैं।
Like it