23 Jun 2025, Mon

1. परिचय
हिंदी सिनेमा के चर्चित खलनायकों की सूची बनाते समय जिस नाम का उल्लेख सबसे पहले आता है, वह अमजद ख़ान का है। कर्कश हँसी, भारी‑भरकम संवाद‑प्रयोग और अद्भुत व्यक्तित्व की बदौलत अमजद ने “गब्बर सिंह” को भारतीय फिल्म इतिहास का अमर चरित्र बना दिया। मगर वे केवल एक ही फिल्म या खलनायक की परिधि तक सीमित नहीं थे; उनका पूरा जीवन रंगमंच, सामाजिक सरोकारों, निर्देशन, राजनीति और पारिवारिक उत्तरदायित्वों से बुना हुआ था। प्रस्तुत लेख में हम उनके जन्म से लेकर निधन तक के हर महत्त्वपूर्ण पहलू पर विस्तृत प्रकाश डालेंगे।

2. प्रारंभिक जीवन
अमजद ख़ान का जन्म १२ नवंबर १९४० को पेशावर (अविभाजित भारत, अब पाकिस्तान) में हुआ। उनके पिता ज़करीया ख़ान—जिन्हें सिनेमा‑प्रेमी “जयंत” के नाम से जानते हैं—स्वयं प्रसिद्ध चरित्र अभिनेता थे। मदरसा, उर्दू शायरी और पारसी रंगमंच के वातावरण में पले-बढ़े अमजद के भीतर अभिनय के बीज बचपन से ही अंकुरित हो चुके थे। बँटवारे के बाद परिवार मुंबई आ गया, जहाँ खार (पश्चिम) में स्थित छोटे‑से घर की दीवारों पर नाटकों के पोस्टर और सिनेमा की चर्चाएँ हमेशा जिंदा रहीं।

3. शिक्षा व युवा काल
मुंबई के सेंट एंड्र्यूज़ हाई स्कूल से मैट्रिक पास करने के बाद उन्होंने आरडी नेशनल कालेज, बांद्रा से पढ़ाई जारी रखी। कॉलेज के वार्षिक नाट्य‑उत्सवों में उन्होंने शेक्सपियर के ‘ओथेलो’ से लेकर हिंदुस्तानी हास्य रंगमंच तक, विविध भूमिकाएँ निभाईं। विद्यार्थी राजनीति का शौक था; वे १९६२ में कॉलेज छात्र‑संघ के अध्यक्ष बने, जहाँ वाकपटुता और नेतृत्व क्षमता दोनों परख में आईं। इसी दौर में महान निर्देशक चेतन आनंद से मुलाकात ने उनके रचनात्मक क्षितिज को और विस्तृत किया।

4. अभिनय की शुरुआत
बालकलाकार के रूप में अमजद पहली बार फिल्म ‘नाज़नीन’ (१९५१) में दिखाई दिए। छात्र जीवन पूरा होते‑होते उन्होंने ऑल इंडिया रेडियो के नाटक और अभिनेता बलराज साहनी के साथ IPTA से भी संपर्क बढ़ाया। मगर रूपहले पर्दे पर हसरतें रंग लातीं, उससे पहले परिवार की आर्थिक जिम्मेदारियों ने उन्हें सहायक निर्देशक की कुर्सी पर ला बिठाया। वे केए अब्बास की इकाई में स्क्रिप्ट एडिटर बने—यहीं उन्होंने पटकथा की बारीकियाँ सीखी।

5. ‘शोले’ और गब्बर सिंह का मील‑पत्थर
१९७५ में रिलीज़ हुई रमेश सिप्पी की ‘शोले’ ने उन्हें रातोंरात स्टार नहीं, किंवदंती बना दिया। “अरे ओ साँभा, कितने आदमी थे?”—यह संवाद आज भी लोक‑संस्कृति का हिस्सा है। दिलचस्प तथ्य यह कि शुरुआत में सिप्पी साहब अमजद को नहीं, डैनी डेंगजोंगपा को कास्ट करने वाले थे; डैनी के डेट्स न मिलने पर ३५ वर्षीय अनजान‑से दिखने वाले अमजद को मौका मिला। अपने शारीरिक हाव‑भाव, भारी आवाज़ और संवादों पर किए लंबे अभ्यास ने उन्हें कभी न भुलाए जाने वाला खलनायक रचने में मदद की।

6. बहुमुखी अभिनेता
‘शोले’ के बाद अक्सर उन्हें डकैत, बदमाश या पुलिस‑अफ़सर के किरदार मिलने लगे, पर उन्होंने खुद को स्टीरियोटाइप में सीमित नहीं होने दिया। ‘आत्मा राम’ और ‘दादा’ जैसी फ़िल्मों में संवेदनशील पिता, जबकि ‘चाणक्य’ (धर्मेंद्र के साथ) में बुद्धिमान राजगुरु बने। ८० के दशक में आई ‘याराना’ में अमिताभ के दोस्त का सकारात्मक रोल हो या ‘लावारिस’ का मज़ाकिया कव्वाल—हर जगह वे दृश्य पर पकड़ रखते नजर आए।

7. दिशा‑निर्देशन और राजनीतिक रुझान
१९८४ में उन्होंने ‘चोर पुलिस’ नामक फिल्म निर्देशित की, जिसमें शत्रुघ्न सिन्हा और बड़े भाई इम्तियाज़ अली ख़ान (इंशाल्लाह ख़ान) ने मुख्य भूमिकाएँ निभाईं। यद्यपि फिल्म ने व्यावसायिक सफलता नहीं पाई, मगर अमजद के कथानक ज्ञान व तकनीकी समझ की सराहना हुई। उसी दशक में वे इंडियन नेशनल कांग्रेस के सक्रिय सदस्य बने, बांद्रा (प.) से नगरसेवक भी चुने गए। राजनीतिक जीवन में ईमानदार और मददगार छवि के कारण वे जनता में लोकप्रिय रहे।

8. व्यक्तिगत जीवन
१९७२ में उनका विवाह शीला ख़ान (पूर्व नाम सीमोन डिसूज़ा) से हुआ। शीला कैथोलिक थीं; अमजद ने धर्मांतरित होने का कोई दबाव नहीं डाला, बल्कि दोनों परिवारों की परंपराओं को समान मान दिया। इस दंपती के तीन बच्चे हुए—शादाब, सीमा और अहलम। शादाब ख़ान ने अभिनेता व लेखक दोनों रूपों में पहचान बनाई और पिता पर ‘शोले—द मेकिंग’ नामक पुस्तक लिखी। अमजद अपने बच्चों के लिए अक्सर शूटिंग कैंप व स्टूडियो में छोटा‑सा पढ़ने का कोना बनाते ताकि परिवार साथ रहे।

9. स्वास्थ्य समस्याएँ व सड़क दुर्घटना
१९७६ में गोवा के निकट एक कार दुर्घटना में उनकी कई पसलियाँ व एक पैर टूट गया। चिकित्सकों ने रिब फ्रैक्चर के चलते स्टेरॉयड्‑आधारित दवाएँ दीं, जिनके दुष्प्रभाव से उनका वज़न ९० से १२० किलोग्राम तक पहुँच गया। इस बढ़े वजन ने आगे चलकर डायबिटीज़ और हृदय संबंधी परेशानियों को न्योता दिया। बावजूद इसके वह शूटिंग पर कभी देर नहीं पहुँचते थे; कप्तान की तरह पूरी यूनिट का मनोबल ऊँचा रखते।

10. सामाजिक कार्य और संगठन
बांद्रा के माउंट मैरी क्षेत्र में उन्होंने “मुस्कान” नामक एक चैरिटेबल ट्रस्ट बनाया, जो स्लम इलाकों में शिक्षा सामग्री और स्वास्थ्य शिविर चलाता था। IPTA के वरिष्ठ सदस्य होने के नाते वे मंच के जरिए सामाजिक असमानताओं पर चोट करने वाले प्ले भी करते। फारूक शेख, शबाना आजमी के साथ मिलकर उन्होंने कई फ़ंड‑राइज़र स्टेज शो किए जिनकी आय बाढ़‑पीड़ितों की राहत में भेजी जाती रही।

11. पुरस्कार व सम्मान
हालाँकि उन्होंने २०० से अधिक फिल्मों में काम किया, किन्तु पुरस्कारों की गिनती सीमित रही। १९७۶ का फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ सह‑अभिनेता अवार्ड उनके हिस्से नहीं आया—इस पर मीडिया में भारी विवाद हुआ क्योंकि ‘शोले’ के सभी कलाकार नामांकित थे पर जीत किसी और ने ली। १९९३ में मरणोपरांत उन्हें फ़िल्मफेयर लाइफटाइम अचीवमेंट के लिए चुना गया। महाराष्ट्र सरकार ने १९९५ में ‘रजत कला गौरव’ सम्मान से उनके परिवार को नवाज़ा।

12. विवाद और आलोचनाएँ
कुछ समीक्षकों का मानना था कि ‘शोले’ की अपार सफलता ने उन्हें “टाइप‑कास्ट” कर दिया, परिणामस्वरूप वे वह कलात्मक उड़ान न भर सके जिसकी वहक़त रखते थे। उन्होंने एक इंटरव्यू में कहा था—“अगर निर्देशक की नज़र में मैं सिर्फ गब्बर हूँ, तो मैं वही करूँगा; लेकिन मेरा जाल बहुत बड़ा है।” १९८८ की फिल्म ‘जादूगर’ में उनके द्वारा निभाए गए धोखेबाज़ उस्ताद पर सेंसर ने कुछ डायलॉग कटवाए, जिसकी वजह से वे उदास रहे।

13. मित्रता और सहकर्मी
अमजद ख़ान और अमिताभ बच्चन की गहरी दोस्ती जगज़ाहिर थी। ‘शोले’ के बाद दोनों ने ‘लावारिस’, ‘याराना’, ‘प्रतिज्ञा’ समेत अनेक फिल्मों में साथ काम किया। धर्मेंद्र, फिरोज़ खान और संजीव कुमार के साथ उनकी बॉन्डिंग अक्सर शूटिंग‑सेट पर किस्सों में बदल जाती। वे नए कलाकारों को डायलॉग डिलीवरी के टिप्स देते और कैमरा‑एंगल समझाते—इसे वे अपना “रिटर्न गिफ्ट” कहते थे।

14. सांस्कृतिक प्रभाव
गब्बर सिंह ने लोक संस्कृति में जो पैठ बनाई, उसकी मिसाल कम है। बच्चों के खेलों (“कितने आदमी थे?” पूछने की नकल) से लेकर विज्ञापनों और राजनीतिक भाषणों तक, गब्बर का एक‑एक जुमला भारतीय जनमानस का हिस्सा बन गया। विश्व सिनेमा में ‘डार्क नाइट’ के ‘जोकर’ या ‘स्टार वॉर्स’ के ‘डार्थ वेडर’ जैसे किरदारों के संदर्भ में अमजद का गब्बर हमेशा उद्धृत किया जाता है।

15. अंतिम वर्ष
१९९१ में उनकी तबीयत लगातार बिगड़ने लगी। मधुमेह और उच्च रक्तचाप के चलते किडनी‑सम्बंधी जटिलताएँ पैदा हुईं। फिर भी वे ‘इंसाफ अपना अपना’ और ‘रामगढ़ के शोले’ जैसी फिल्मों की शूटिंग के दौरान व्हीलचेयर पर आए। सेट पर हँसी‑मज़ाक का माहौल बनाए रखना उनकी आदत थी—वे कहते, “अगर मौत आनी है तो शूटिंग की आवाज़ के बीच आए।”

16. निधन और शोक
२७ जुलाई १९९२ की भोर में बॉम्बे हॉस्पिटल (मुंबई) में दिल का दौरा पड़ने से उनका निधन हुआ। इंडस्ट्री में शोक की लहर दौड़ गई। अंतिम यात्रा में अमिताभ बच्चन ने अर्थी को कंधा दिया, वहीं धर्मेंद्र और सलमान ख़ान (उनकी हॉबी क्रिकेट टीम ‘अभिनेता इलेवन’ के सदस्य) भी पैदल चले। फिल्म पत्रिकाओं ने कवर‑पेज पर लिखा—“गब्बर अब नहीं रहा, किंवदंती अमर रहेगी।”

17. पारिवारिक विरासत
उनका बंगला ‘बंगले‑दार’ अब “अमजद ख़ान मेमोरियल ट्रस्ट” का कार्यालय है, जहाँ शादाब और सीमा ख़ान ऑडिशन वर्कशॉप चलाते हैं। २०२३ में OTT प्लेटफॉर्म पर रिलीज़ हुई वेब‑सीरीज़ ‘गब्बर सिंह: द अनटोल्ड सागा’ में उनके जीवन के अनदेखे पहलू दिखाए गए; सीरीज़ का शोध‑सामग्री largely परिवार की व्यक्तिगत डायरी और अमजद के रेकॉर्ड किए गए ऑडियो नोट्स पर आधारित था।

18. निष्कर्ष
अमजद ख़ान केवल एक महान खलनायक नहीं, बल्कि बहुआयामी कलाकार, संवेदनशील इंसान और प्रतिबद्ध सामाजिक कार्यकर्ता थे। उनकी आवाज़ आज भी रेडियो नाटकों में गूँजती है, संवाद फ़िल्म‑स्क्रीन से निकलकर पॉप‑कल्चर का हिस्सा हैं और मानवीय संवेदनाएँ उनके पात्रों से झलकती रहती हैं। उनके जाने के तीन दशक बाद भी भारतीय सिनेमा जब भी यादगार प्रदर्शन और यादगार संवादों की बात करता है, गब्बर सिंह और अमजद ख़ान का नाम स्वर्ण अक्षरों में दर्ज दिखाई देता है—और यह धरोहर आने वाली पीढ़ियों को प्रेरित करती रहेगी।

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